Tuesday, December 30, 2008

दरिया है वो प्यासा है वो देखो नकाब में ...

चेहरा छुपाए रख्खा है वो देखो नकाब में ।
कातील है फ़रिश्ता है वो देखो नकाब में ॥

कत्ल करता है ऐसे के पता भी ना चले ,
जख्म देता है गहरा है वो देखो नकाब में ॥

हमसे रूठा है ये सितम है या अदा उसकी
जैसा भी है अच्छा है वो देखो नकाब में ॥

नाजुक लबों से उसके मोहब्बत की सदा सुन
जिन्दा हूँ के आया है वो देखो नकाब में ॥

मैं हूँ इस बात पे खामोश तू उसकी सब्र देख
दरिया है वो प्यासा है वो देखो नकाब में ॥

एक बेकली है जो दफ़न है"अर्श"मेरे सीने में
एक खलिश है के तड़पता है वो देखो नकाब में ॥

प्रकाश "अर्श"
३०/१२/२००८

Saturday, December 27, 2008

अगर जुन्नार और तस्बीह दोनों एक हो जाए...

कोई लकीर नही खींचते दिलों के रास्ते में ।
के हमारा घर नही बांटता मीलों के रास्ते में ॥

दोनों सरहद में बंटें है मगर यूँ गुमराह न हों
के अनपढ़ आ नही सकता काबीलों के रास्ते में ॥

मौज आएगी टकराएगी मगर ये डर कैसा
के मौज दम भी तोडे है साहिलों के रास्ते में ॥

दोनों ने तान रखा है निशाना एक दूजे पे
कोई फ़िर आ नही सकता जाहिलों के रास्ते में ॥

रगों में खून भी बहता है उसके मेरे पूर्वज का
हमारी पहचान रहे कायम तब्दीलों के रास्ते में ॥

अगर जुन्नार और तस्बीह दोनों एक हो जायें
कोई फ़िर आ नही सकता फाजिलों के रास्ते में॥


प्रकाश"अर्श"
जुन्नार=जनेऊ ,तस्बीह=मुसलमानों का जाप माला
फाजिलों= प्रवीन,श्रेष्ठ ।

Friday, December 26, 2008

मेरे हर ख्वाब को मकसद बनाये बैठी है ...

आज मैं इस ब्लॉग पे अपनी पचासवीं ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद चाहूँगा ........


उसके भी सितम ढाने की अदा खूब है ।
दूर जा जा के पास आने की अदा खूब है ॥

बैठी है महफ़िल में मगर देखो तो सही
दूर ही से नज़रें मिलाने की अदा खूब है

मेरे हर ख्वाब को मकसद बनाये बैठी है
मोहब्बत उसके निभाने की अदा खूब है ॥

रंज में रोती है बेशक रुलाती भी है मुझको
इश्क में रूठने मनाने की अदा खूब है ॥

कभी इतेफाक से मिल जाए तो शरमाके
दांतों में उंगली दबाने की अदा खूब है ॥

निगारे-नजरवान कहूँ या"अर्श"हयाते-जान
शब्-ऐ-तारिक उसके मिटाने की अदा खूब है ॥

प्रकाश "अर्श"
२६/१२/२००८

निगारे-नजरवान=आंखों में खुबसूरत दिखने वाली
शब्-ऐ-तारिक=अँधेरी रात (इसका प्रयोग ज़िन्दगी
में फैले अंधियारे से है )
हयाते-जान=ज़िन्दगी की जान।

Wednesday, December 24, 2008

मैं भटकता रहा इत्मिनान से गैरों की बस्ती में ...

वो के एक रस्म निभाने पे खफा हो बैठा ।
जख्म उसी के थे दिखाने पे खफा हो बैठा ॥

तिश्नगी उसकी किस क़द्र होगी महफ़िल में
जाम टकरा के पिलाने पे खफा हो बैठा ॥

जख्म देकर हादसा बताये फिरता है मगर
वो हादसा अमलन गिनाने पे खफा हो बैठा ॥

रस्मे उल्फत जो सिखाता रहा उम्र भर मुझको
आख़िर वही रस्म निभाने पे खफा हो बैठा ॥

वो दुआ करता रहा मिल जाए खियाबां उसको
लो खिजां में फूल खिलाने पे खफा हो बैठा ॥

मैं भटकता रहा इत्मिनान से गैरो की बस्ती में
दिया जो उसको आशियाने पे खफा हो बैठा ॥

एक चेहरेमें छुपाये रखा है"अर्श"कई चेहरे
आईना उसको दिखाने पे खफा हो बैठा ॥

प्रकाश"अर्श"
२५/१२/२००८

Tuesday, December 23, 2008

घर तक आए है तमाशाइयां ...

मैं हूँ तू है, और है तन्हाईयां ।
दिल है धड़कन और अंगडाइयां ॥

मौसम भी है,कुछ दिल बेबस
दिल कहता है कर बेईमानीयाँ ॥

देखो तमाशा ना बन जाए कहीं
घर तक आए है तमाशाइयां ॥

तेरी आँखें तो है दोनों जहाँ
इस दो जहाँ पे है कुरबानीयाँ ॥

जुल्फ तेरे है यूँ घटावों जैसी
हुस्न से है तेरे रोशानाइयां ॥

तेरी नजाकत तेरी हया भी
कर देगा"अर्श"फ़िर रुस्वाइयां ॥

प्रकाश "अर्श"
२३/१२/२००८

Tuesday, December 16, 2008

वो खड़ा है मुखालिफ-सफ में ....

वो रात कभी का भुला दिया ।
जो ख्वाब जगे थे सुला दिया ॥

वो खड़ा है मुखालिफ-सफ में
इस बेदिली ने फ़िर रुला दिया ॥

जो करता रहा जुर्मो का सौदा
मुन्सफी में उसको बुला दिया ॥

रहने लगा मिजाज से आज-कल
जिस वक्त से हमको भुला दिया ॥

क्या बात थी तुम मुकर गए
किस बात पे यूँ लहू ला दिया ॥

आवो ना आजावो"अर्श"वरना
ज़िन्दगी ने दाम पे झुला दिया ॥

प्रकाश"अर्श"
१६/१२/२००८

मुखालिफ-सफ=बिरोधियों की पंक्ति
दाम=फंदा ,मुन्सफी=फैसला॥

एक शे'र खास तौर से विनय भाई(नज़र) के लिए...
लिखो सानी अब तुम नज़र
मैंने तो मिसरा उला दिया ॥

Sunday, December 14, 2008

काटों की तिजारत सा मेहमां निकला ...

मैं भी, किस दर्जे, दीवाना निकला ।
जो था मेहरबां,नामेहरबां निकला ॥

देता रहा मुझे,जो तस्सलियाँ उम्रभर
वो कहता रहा हा -हा ,ना-ना निकला ॥

जाने लगा तो ,दो -चार जख्म दे गया
देख वो नामेहरबां,मेहरबां निकला ॥

फ़िर किसी रोज,वो तड़पकर आया
मिली तस्कीन,मगर अब्ना निकला ॥

मिले थे जिस उम्मीद से"अर्श"भरम में
काटों की तिजारत,सा मेहमां निकला ॥

प्रकाश "अर्श"
१४/१२/२००८

तिजारत=खरीद-बिक्री ,अब्ना =अवसर
तस्कीन = शान्ति ॥

Saturday, December 13, 2008

दिखे है मुझे अब विरानियाँ शहर में ...

बन जाए अगर आदमी आदमी सा ।
के फितरत नहीं आदमी आदमी सा ॥

ना आंसू बहेंगे आंखों से किसी के
गर काटे कोई आदमी आदमी सा ॥

दीवाना हुआ है वो पागल भी मानों
दिखा है कोई आदमी आदमी सा ॥

कहे क्या कोई अब फ़साना ग़मों का
हँसेंगे सभी कह आदमी आदमी सा ॥

हंसीं खेल में तबाह ना कर किसी को
दिल तेरा भी है आदमी आदमी सा ॥

दिखे है मुझे अब विरानियाँ शहर में
क्या है गाँव में आदमी आदमी सा ॥

मुल्कों में ना होगी यूँ सरहद की बातें
बन जाए अगर आदमी आदमी सा ॥

वो कौन है जो कोने में सिसक रहा है
पूछो हाल"अर्श" आदमी आदमी सा ॥

प्रकाश"अर्श"
१३/१२/२००८

Thursday, December 11, 2008

बैठा हूँ दर्द की बस्ती में तजुर्बों के लिए ...

शबे-फिराक में वो कैसी निशां छोड़ गया ।
जहाँ से वो गया मुझको वहां छोड़ गया ॥

रहेगा दिल में अखारस ये उम्र भर के लिए
जिस बेबसी से वो यूँ आस्तां छोड़ गया ॥

चली जो दर्द की आंधी गर्दो-गुबार लेकर
बुझी-बुझी से राख में वो धुंआ छोड़ गया ॥

मुझे रोता, तड़पता. छटपटाता देखकर
किया एहसान मुझे मेरे मकां छोड़ गया ॥

बैठा हूँ दर्द की बस्ती में तजुर्बों के लिए
कहाँ है वैसा मौसम जो समां छोड़ गया ॥

वो मिला जीने का मकसद मिला था मुझे
वो गया"अर्श"फ़िर अहले-जुबां छोड़ गया ॥

प्रकाश "अर्श"
११/१२/२००८

Monday, December 8, 2008

अब रौशनी कहाँ है मेरे हिस्से ...

अब रौशनी कहाँ है मेरे हिस्से ।
लव भी ज़दा ज़दा है मेरे हिस्से ॥

गर संभल सका ,तो चल लूँगा ।
पर रास्ता ,कहाँ है मेरे हिस्से ॥

मैं भी चीखता चिल्लाता मगर ।
कई दर्द बेजुबां है मेरे हिस्से ॥

हुजूम हो खुशी का तेरी महफ़िल में ।
ज़ख्म है, बद्दुआ है मेरे हिस्से ॥

चाँद तारे जो तेरी निगहबानी करे ।
काफिला जुगनुओं का है मेरे हिस्से ॥

नही है"अर्श"मेरे नसीब ना सही ।
तेरी निगाह का, चारा है मेरे हिस्से ॥

प्रकाश "अर्श"
०९/१२/२००८
ज़दा =चोट खाया ,निगहबानी=रक्षक ,

Saturday, December 6, 2008

कुछ कम ही मिले मुझसे ज़िन्दगी के बसर में ...

कुछ कम ही मिले मुझसे ज़िन्दगी के बसर में।
आया नहीं वो, के न था , दुआ के असर में ॥

माना के मुद्दई हूँ मैं,पर इतनी तो ख़बर हो ।
क्या ज़ुल्म थी हमारी,कहो जिक्र जबर में ॥

उकता गया हूँ अब तो , मैं भी यूँ ही लेटे हुए ।
चलती रही थी नब्ज़ मेरी,डाला जो कबर में ॥

मिलाया खाक में मुझको,मिटाई हस्ती भी मेरी ।
धुन्दोगे मेरे बाद मुझको,वहीँ गर्दे सफर में ॥

वही मैं था, वही मय वही साकी थे बने तुम ।
वहीँ डूब के रह गया था मैं,बस तेरी नज़र में ॥

आयेंगे मिलजायेगे तुझे,"अर्श"नए दोस्त ।
मुश्किल ही मिले जैसा मेरे,कोई राहबर में ॥

प्रकाश"अर्श"
०७/१२/२००८

Tuesday, December 2, 2008

क्या हुस्न है क्या जमाल है ...

क्या हुस्न है, क्या जमाल है ।
खुदाया तिरा, क्या कमाल है ॥

वो सितमगर है,मगर फ़िर भी ।
पूछता वही तो ,मेरा हाल है ॥

वक्त ने तो मुझे,ठुकरा दिया था ।
उसने थामा तो,हुआ बवाल है ॥

अपना सबकुछ,गवां कर मैंने ।
वो मिला फ़िर ,क्या मलाल है ॥

इक सदा है ,मुझसे जुड़ी हुई ।
वो सदा भी,उसका सवाल है ॥

है चाँदनी में,धूलि हुई या"अर्श"
मेरी नज़र ,का इकबाल है ॥

प्रकाश "अर्श"
०२/१२/२००८
इकबाल = सौभाग्य ,

Sunday, November 30, 2008

किस्मत में मेरे चैन से जीना लिखा दे ...

वेसे तो मैं मुसलसल ग़ज़ल ही लिखने की कोशिश करता हूँ ,मगर एक गैर मुसलसल ग़ज़ल आप सबों के सामने पेश कर रहा हूँ उम्मीद करता हूँ पसंद आए........


किस्मत में मेरे , चैन से जीना लिख दे ।
दोजख भी कुबूल हो,मक्का-मदीना लिख दे ॥

जहाँ दहशत जदा हैं लोग,चलने से गोलियां ।
हर गोलिओं के नाम , मेरा सीना लिख दे ॥

मेहनत किए बगैर ,बद अंजाम से डरता हूँ ।
कुछ काम कर सकूँ,वो खून-पसीना लिख दे ॥

वो शान है उनकी ताज पे,गोरों के महफ़िल में ।
कभी शर्म आ जाए ,तो वो नगीना लिख दे ॥

जितना वो पिसेगी ,चढेगा उतना उसका रंग ।
मोहब्बत का नाम ,कोई संगे - हिना लिख दे ॥

दिखे है तेरा अक्स ,हर टुकड़े में यहाँ "अर्श"
टुटा था ,वो दिल था ,तू आइना लिख दे ॥

प्रकाश "अर्श"
३०/११/२००८
चौथा शे'र भारत के कोहिनूर हीरे के बारे में कहा गया है जो इंग्लॅण्ड के महारानी के ताज पे सुशोभित है ॥

Thursday, November 27, 2008

आज घर के एक कोने में बिखरा पड़ा हूँ मैं ....

हुई है ज़िन्दगी मेहरबान लो आबला दिया ।
मोहब्बत में हमें इनाम उसने गिला दिया ॥

आज घर के एक कोने में, बिखरा पड़ा हूँ मैं ।
यही किस्मत थी हमारी, यही सिला दिया ॥

कहती थी के करती है,मुझे टूट के मोहब्बत।
आई जो मेरे पास तो, मुझे इब्तिला दिया ॥

कभी फुरकत की बात पे,कहा चुप करो जी तुम ।
जाने लगी तो उम्र भर ,का फासिला दिया ॥

सी - सी के पहन लूँगा, वही चाके - कफ़न मैं ।
जिस नाज़ से"अर्श"तुने खाक में मिला दिया ॥

प्रकाश "अर्श"
२७/११/१००८

इब्तिला =पीडा,कष्ट । आबला =छाला

Saturday, November 22, 2008

इक हर्फ़ में हमने अपनी जिंदगानी लिख दी ...

इक हर्फ़ में हमने अपनी जिंदगानी लिख दी ।
हाय तौबा, हुआ फ़िर जो नादानी लिख दी ॥

वो समंदर है उसको इस बात का क्या ग़म ,
आंखों से जो बह निकले ,पानी- पानी लिख दी ॥

था कच्ची उमर का मगर था मजबूत इरादा ,
लहू के रंग से नाम उनकी आसमानी लिख दी ॥

नवाजा था उसने, के जाहिल हूँ ,मैं जालिम हूँ
मोहब्बत का करम था हमने मेहरबानी लिख दी ॥

हुई जो चर्चा अपनी मौत की ,जनाजे से दफ़न तक ,
किया था कत्ल ,मगर वक्त पे कुर्बानी लिख दी ॥

रहने दो, इत्मिनान से अब ऐ मेरे रकीबों ,
कुछ नही है मेरे पास,"अर्श"को जवानी लिख दी ॥

प्रकाश "अर्श"
२३/११/२००८

Friday, November 21, 2008

चल लौट चलें "अर्श" वहीँ अपने अब्तर में .....

ये कहाँ आ गया हूँ मैं , दीवानों के शहर में ।
हर वक्त खटकता हूँ यहाँ सबके नज़र में ॥

लिखता हूँ गर कोई ग़ज़ल होती न मुक्कमल ,
होती है ग़लत रदीफ़,काफिये में बहर में ॥

सब है अपनी धुन में, मतलब ही नही किसी को ,
कैसा है यहाँ चलो-चलन अपने -अपने घर में ॥

किया जो इज़हारे मोहब्बत, मैंने किसी से ,
टाला है वहीँ ,उसी ने ,बस अगर-मगर में ॥

होती हो तिजारत अगर मोहब्बत पे मोहब्बत ,
मैं भी खड़ा हासिये पे यहाँ सिम-ओ-जर में ॥

नही करनी मोहब्बत मुझे, न होगी ये मुझसे ,
चल लौट चले "अर्श"वही अपने अब्तर में ॥

प्रकाश "अर्श"
२१/११/२००८

अब्तर =मूल्यहीन,

Thursday, November 20, 2008

तेरे दिल से मेरे दिल का रिश्ता क्या ...

तेरे दिल से ,मेरे दिल का रिश्ता क्या ।
तू मिलती, ना मैं मिलता, फ़िर मिलता क्या ॥

सोंच रहा ,क्यूँ तेरा ऐसे नाम लिया ,
याद है अब भी भूलता फ़िर तो भूलता क्या ॥

वो फलक जो दूर तलक जा मिलता है ,
जाता मैं तो वो वहां फ़िर मिलता क्या ॥

याद है आब भी तेरी सांसों की गर्माहट ,
राख हुआ था जलने को अब जलता क्या

वर्षो पहले एक चमन होता था अपना ,
एक भी फुल अब "अर्श"वहां है खिलता क्या ॥

प्रकाश "अर्श"
२०/११/२००८

Sunday, November 16, 2008

हाजीरी लगाई मैंने फ़िर इकरार कर लिया ..

उनसे नज़र हमने, इस तरह मिला लिया ।
हाय अल्लाह क्या कर दिया, ये क्या कर लिया ॥

आई जो बात ,अपनी मोहब्बत की अस्हाब ,
उसने ना कोई दिल लिया, न कोई जिगर लिया ॥

देखा था, इस अंदाज़ से उसने मेरी तरफ़ ,
रहमत खुदाया तेरा था के तीरे-जिगर लिया ॥

लोगों ने पूछा जब ,मुन्सफी में उसका नाम ,
आशुफ्ता खुदा का नाम हमने उधर लिया ॥

रोका जब उस तरफ़ से, रास्तों ने मेरा हाथ ,
हाजीरी लगाई मैंने, फ़िर इकरार कर लिया ॥

मुझको भी अब बता दो दीवानों के अस्मशान ,
ख़ुद ही कब्र खोद लिया" अर्श" ख़ुद ही गुजर लिया ॥


प्रकाश "अर्श"
१६/११/२००८
अस्हाब =स्वामी ,मालिक,
आशुफ्ता =घबराहट में ,

Saturday, November 15, 2008

उनको नायाब देखा है ....

इक अजीब खाब देखा है
उनको नायाब देखा है

बड़ी मुश्किल में हूँ ,
ये क्या जनाब देखा है ,

वहीँ छलके है फकत ,
उम्दा शराब देखा है

मुझे भी मिलेगा
क्या
,वो अजाब देखा है

उनके जमाले रुख पे ,
कैसा आफताब देखा है

अर्श डूब गया हूँ मगर,
ताब को ताब देखा है


प्रकाश "अर्श"
१५/११/२००८

Thursday, November 13, 2008

सुना है इश्क में नज़रें जुबान होती है ...

उनकी हर लफ्ज़ में मोहब्बत जवान होती है ।
वो होती है, तो महफ़िल में जान होती है ॥

उनके आँचल के तले नींद में उन्घी सी ख्वाब
जागती है, तो मुक्कमल सयान होती है ॥

है वो मुमताज़ की जागीर ,मगर सोंचों तो सही
उनकी चर्चे भी ,ताजमहल की शान होती है ॥

वो भी चुप है ,मैं भी कुछ कह नही पाता
सूना है ,इश्क में नज़रें जुबान होती है ॥

वो सोंच ले ,जो फकत उंगली उठाना जानते है
उनकी अपनी भी तो"अर्श" गिरेबान होती है


प्रकाश "अर्श"
१३/११/२००८

Wednesday, November 12, 2008

करता है फ़िर गुनाह क्यू रब भी कभी कभी ..

आती है उनकी याद अब भी कभी कभी ।
मिलता हूँ अपने आप से जब भी कभी कभी ॥

रहती थी ,परेशान वो, चेहरा छुपाने में
उतारता था जब नकाब सब भी कभी कभी ।

आई न, नींद उम्र भर इसी, इंतजार में
लगता है आ रही है वो अब भी कभी कभी ॥

लिखता था ख़ुद जवाब, मैं अपने सवाल का
देती न थी, जवाब वो तब भी कभी कभी ॥

हमने क्या बिगाडा "अर्श" के हम बिछड़ गए
करता है फ़िर गुनाह क्यूँ रब भी कभी कभी ॥

प्रकाश "अर्श"
१३/११/२००८

Monday, November 10, 2008

ग़म, आंसू , दर्द .....

ग़म , आंसू , दर्द

यही सारे है

हमदर्द मेरे ।

मिले हैं मुफ्त तो

मुझको

सस्ती - सस्ती तन्हाई

मेरा खजाना तुम गर पूछो

बस उम्र- भर

की

बेवफाई




प्रकाश "अर्श "
१०/११/२००८

Sunday, November 9, 2008

नहीं सियाह तो समंदर पे हुकूमत होगी ....

नहीं सियाह तो समंदर पे हुकूमत होगी ।
मिलेगी वो मुझे अगर मेरी किस्मत होगी ॥

अभी से हार के क्यूँ बैठ जायें खुदा से ,
मिलेंगे लोग वही जब दोजख जन्नत होगी ॥

बहोत कठिन है, यकीनन ये राहे -मोहब्बत ,
करेंगे पार, अगर हौसला हिम्मत होगी ॥

नहीं हैं सीरी -फ़रहाद ,कैस से बड़े हम
मिलेगी हमको भी उकुबत जो उकुबत होगी ॥

वज्म में आना तुम भी, ओ मेरे रकीबों
करेगा "अर्श" खिदमत जो खिदमत होगी ॥


प्रकाश "अर्श"
९/११/२००८

खुदा = मोहब्बत के ठेकेदार, उकुबत = सज़ा ,
खिदमत = सेवा ,आवभगत । बज्म = सभा ,
कैस = मजनू ,रकीब = दुश्मन .................,

Friday, November 7, 2008

मुझको मुज़रिम न बनावो खुदा के लिए...

उठे हैं जब भी ये हाँथ , तो दुआ के लिए
मुझको मुज़रिम न बनावो खुदा के लिए ॥

किस तरह उनसे कहूँ के, नही है मेरा कसूर
कोई लफ़्ज़ ही नहीं है अब जुबां के लिए

कुछ तो एहतियात करो ,ऐसे ना करो तुम
मान भी जावो मेरा कहा खुदा के लिए ॥

आए नही हो तुम ,जब भी किया वादा
अच्छा था इंतजार वो तजुर्बा के लिए ॥

अकबर बना है "अर्श" वो जिसने किया गुनाह
कोई नही है अत्फ़ यहाँ बे-जुबां के लिए ॥

प्रकाश "अर्श"
७/११/२००८

अकबर = महान , अत्फ़ = दया ,कृपा

Wednesday, November 5, 2008

देखो अब ज़माना भी तेरे मेरे साथ है ...

की जो किसी ने, मुझसे मेरे जिक्र-हयात की ।
आया जुबां पे, नाम तेरा तौबा ज़मात की ॥

महफूज़ है, अब भी वहीँ ,तेरी वफ़ा की जा
कैसे भुलाऊं बात वो पहली मुलाकात की ॥

आया वो, आके लौट गया मेरे गोर से
मुश्त-ऐ-खाक डाल न सका, रवायत की ॥

देखो, अब ज़माना भी तेरे- मेरे संग है
इनको भी मिली है खुशी अपने निजात की ॥

एक ही खंज़र है "अर्श"दोनों के सिने में
लोगों ने मुन्शफी की, है ये हादिसात की ॥

प्रकाश "अर्श"
५/११/२००८
जिक्र -हयात =जिंदगी की चर्चा
ज़मात=इकठी भीड़ ,मुन्शफी =फैसला
मुस्त-ऐ-खाक =एक मुठी मिटटी ,
हादिसात = दुर्घटना ॥ गोर= कब्र

Sunday, November 2, 2008

अपने ही घर में आए है हम मेहमान की तरह.....

अपने ही घर में आए हैं हम मेहमान की तरह ।
हमसे भी पूछा हाल-ऐ-दिल अंजान की तरह ॥

सबको लगाया उसने गले जी बड़े तपाक से ,
हमसे मिलाया हाथ भी तो मेहरबान की तरह ॥

ऐसी बेकली तो कभी जिन्दां में भी ना हो ,
जिन्दां में हूँ जिन्दा तो बस अह्जान की तरह ॥

चिलमन के उस तरफ़ से जो देखा था एकबार ,
शायद दिखा रहे थे हम भी नादान की तरह ॥

हमको निकाल देते "अर्श" गर बे-तमीज थे ,
हमको बुलाया है तो मिलो इंसान की तरह॥


प्रकाश "अर्श'
२/११/२००८

जिन्दां= कारागार ,बंदीगृह ॥ अह्जान = दुःख से ॥

Saturday, November 1, 2008

तेरा मिलना मुझसे कहना काश के आप हमारे होते

कितनी अच्छी, बात ये होती, तुम जो गर हमारे होते ।
हुस्न भी होता, इश्क भी होता, सूरज चाँद सितारे होते ॥

तेरी बातें ,तेरा हँसना, तेरी वो खामोश ईशारे
तेरा आना ,तेरा जाना ,मैं तेरा तुम हमारे होते ॥

मेरी धड़कन, मेरी सांसे, मेरी हर एक आह तुम्हारी
तेरा मिलना, मुझसे कहना, काश के आप हमारे होते ॥

थोडी सी घबडाहट होती, थोड़ा सा शर्माना होता
तेरी तरफ़ जो देखता मैं फ़िर आँचल के वो किनारे होते ॥

तेरी आंखों के मैखाने ,तेरे होंठों के प्याले से "अर्श "
होश में हूँ बस ये कह लेता, होश कहाँ हमारे होते ॥

प्रकाश "अर्श"
१/११/२००८

Sunday, October 26, 2008

एक बस तू ही नही मुझसे खफा और भी हैं .......

एक बस तू ही नहीं मुझसे खफा और भी है ।
इक मोहब्बत के सिवा वादे-वफ़ा और भी है ॥

चोट खाया, तो समझ आई, के मुज़रिम हूँ मैं
दिल ने फ़िर मुझसे कहा देखलो जा और भी है ॥

तुझे अज़ीज़ है सिम-ओ-जर तो मुबारक हो तुझे
तुमसे गिला क्या करें जहाँ मेरे सीवा और भी है ॥

मैं हूँ महरूम ,मरहूम ,मरहम न लगा "अर्श"
सोंच लो जुल्म-ऐ-मोहब्बत की सजा और भी है ॥

"अर्श"
२६/१०/२००८
सिम-ओ-जर=धन दौलत ,जा = जगह

Wednesday, October 22, 2008

बहोत बेसब्र है ये दिल बड़ी बेकरारी है ......

बहोत बेसब्र है ये दिल बड़ी बेकरारी है ।
बेदाद-ऐ -इश्क था मुझपे अब किसकी बारी है ॥

वही जुस्तजू लिल्लाह वही है आरजू कसम से
लगी है गुफ्तगू होने के वो आबरू हमारी है ॥

गम-ऐ- हयात की नुमाइश अब क्या करे कोई
सब्र है तुम हमारे हो और दुनिया तुम्हारी है ॥

खुला जब बंद-ऐ-नकाब-ऐ-हुस्न वो साकी
तल्खी-ऐ-काम-ओ-दहन उसकी है या तुम्हारी है ॥

मैं कहाँ जाऊँ अफ्सुं-ऐ-निगाह के सिवा
वही हाइल है हमारी "अर्श"वही चारागरी है ॥


बेदाद-ऐ-इश्क =मोहब्बत का जुलम ,
गम-ऐ-हयात =दुःख भरी ज़िन्दगी ,
बंद-ऐ-नकाब-ऐ-हुस्न =प्रेमिका के नकाब के बंधन
तल्खी-ऐ-कम-ओ-दहन=ओठ और तालू पर महसूस
होने वाला कसेलापन । अफ्सुं-ऐ-निगाह = जादू भरी निगाह
हाइल = बाधा पहुँचने वाला
मुआफी चाहता हूँ ज्यादा उर्दू और फारसी का शब्द इस्तेमाल करने के लिए ॥


प्रकाश "अर्श"
२२/१०/२००८

Wednesday, October 15, 2008

दिल जार - जार था ..................

दिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
उनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥

वो शोखी चहरे पे ऐसी के ज़माने फ़िर कहाँ ।
उनके गिले होंठ ,वो हिना-ओ-रुखसार था ॥

खुली थी जुल्फ ,था बदन जैसे संगेमरमर ।
तिरछी नज़र का तीर यहाँ तो आर-पार था ॥

वो परी थी, या कोई हूर थी ज़मीं पे उतरी ।
हुस्नो-शबाब का उनपे तो यो भर-मार था ॥

आफत हुई है "अर्श" अब तो जीना मुहाल है ।
दिल पे अब अपने कहाँ इख्तियार था ॥


प्रकाश "अर्श"
१४/१०/२००८

हिना-ओ-रुखसार = गलों पे छाई लाली ।

Tuesday, October 14, 2008

बड़ी अदब से मुझको आजमाने लगे .....

वो दुश्मनी इस कदर निभाने लगे ।
दूर जाते -जाते पास आने लगे ॥

दिलो-दिमाग से जिसको निकालना चाहा
हुजुर बनके वो जहन में छाने लगे ॥

मेरी मोहब्बत भी मुक्कमल हो गई होती
बड़ी अदब से मुझको आजमाने लगे ॥

वो मय था शराब था जो कल तलक
मैखाने में वही आने - जाने लगे ॥

जो ग़लत था तौबा किया था लोगों ने
आज वही गीत वो गुनगुनाने लगे ॥

बड़ी अदब से जब कहा खुदाहाफिज़ "अर्श"
जो कहने में शायद हमें ज़माने लगे ॥

प्रकाश "अर्श"
१४/१०/२००८

Wednesday, October 1, 2008

वक्त ने उनको मोतारमा बना दिया .....

वक्त ने उनको मोहतरमा बना दिया ।
खुदाया तुमने भी किसको क्या बना दिया ॥

घर से निकला था जो , तकमील के लिए ,
रास्तों ने पैरो में आबला बना दिया ॥

मुझे गुरुर था, बज्म-ऐ-नाज़ पे मगर ,
उस शख्स ने,दार-ओ-रसन जा बना दिया ॥

हाँथ मलता रहा वो उम्र भर ,आखरस
खून को "अर्श" वही रँगे-हिना बना दिया ॥

प्रकाश "अर्श"
०१/१०/२००८
तकमील = मंजिल पे पहुँचना, आबला =छाला ,
रँगे-हिना =मेहंदी का रंग , बज्म-ऐ-नाज़ = माशूक की महफ़िल
दार-ओ-रसन = सूली और फंसी का फंदा , जा = जगह ॥

Wednesday, September 17, 2008

ये कैसा कसाई था वो ...................

हाँ,वो ब्लू कमीज और काले रंग का पैंट पहन रखा था। यही पूछा था मेरे से ठाणे से किसी सिपाही ने अपने कांफिर्मेशन के लिए ॥ मेरे हाँ के जवाब में उसने मुझे ठाणे बुलाया कहा आपके दोस्त का दुर्घटना हो गया है। उसकी अकाल मृत्यु की ख़बर पते ही जैसे मेरे पैरों टेल ज़मीं निकल गई ॥ अपनी मोटर साइकिल चलाते वाक्क्त मेरा भी हाँथ कांप रहे थे ,किसी तरह से जब वहां पहुँचा तो सारी बातें साप्ह हो गई । ठाणे के सभी लोग काफी सहयोगी जैसे वर्ताव कर रहे थे सबसे ज्यादा साहिबाबाद ठाणे के सब-इंसपेक्टर तिलक चाँद जी जो शायद हमारे परेशानियों से अवगत थे काफी सहयोग दिया उन्होंने । ये वही शख्स था जिससे दोस्ती मेरी पहली दफा मैनेजमेंट कॉलेज में दाखिला के वक्ता हुआ था वो भी डेल्ही जैसे शहर में पहली दफा आया था बात चलते कहते वो मेरे अपने शहर के तरफ़ का ही निकला बहोत सारे सपने थे दोनों के आँखों में मगर अपनी अपनी जगह पे थे ॥ उसे अपनी बड़ी बहन की शादी के लिए लड़के धुन्धने थे वो बहोत बारी मेरे से इस बारे में चर्चा करा करता था । उसका एक छोटा भाई था जो एरोनोतिला इंगिनिओर था यही था मगर दोनों साथ नही रहते थे । उसका छोटा भाई जब भाई हमारे पास आकर अपने रूम पे जाता पैर छू के वो प्रणाम करता था। हम दोनों में काफी बरी झगरे भी होते थे मगर वो भी गुस्सा सारे पानी के बुलबुले की तरह होती थी । अक्सर हम भविष्य की रुपरेखा तैयार करते थे । हमने एक कंपनी भी सोंची थी खोलने की मगर वो खवाब अधुरा रह गया॥ अभी उसके देहांत के लगभग मुश्किल से १६ दिन ही हुए थे मेरी आँखे और मेरे कान भरोषा नही कर प् रहे थे जो मैंने सुना था॥ वो अक्सर मेरे ग़ज़लों को सुनता था और सराहा करता था ,हाँ मगर वो सबसे बड़ा मेरा आलोचक भी था ,मुझे अच्छा भी लगता था ॥ उसकी अन्तिम बिदाई में भी मुझे इतना दुःख नही हुआ जब मैंने मानवता कान ऐसा गन्दा खेल देखा शायद उस वक्त वो उसे पानी के लिए नही पूछा रहा होगा जब वो कराह रहा होगा उसे तो उसके बटुए की पड़ी थी जिसमे उसके कार्ड्स थे । हमने सोंचा लोग कितने अच्छे है मगर मेरा दुःख उस समय और ज्यादा बढ़ गया जब उसके मृत्यु कोई १६ दिन बाद ही उसके क्रेडिट कार्ड कां बील आया । वो भी स्वपे उसके मृत्यु के दो दिन के बाद किया गया था । मेरी ऊपर वाले से यही प्रार्थना है के मेरे दोस्त के आत्मा को शान्ति दो और उस शख्स को इतनी बरकत दो जिसे ये जरुरत पड़ती है के वो किसी का मरने का वेट करे और उसका बतुया उठाये और अपना जीविका चलाये॥ मैंने कसैओं के बारे में तो सुना था मगर ये कौन था ...


हमेशा उसके स्मृति में

प्रकाश "अर्श"

१७/०९/2008

Saturday, August 30, 2008

हज़ार बातें कही थी तुमने.......

हज़ार बातें कही थी तुमने
हज़ार खावोहिश दबी है दिल में
वही मोहब्बत , वही आरजू है
जो खवाब आंखों में दिखाई थी तुमने॥

हमारे दिल का ,वो एक कोना
कोई काट कर ले जा रहा है
वही जिन्दा बचा था
अबतक
जिसको ज़िन्दगी दिखाई थी तुमने ॥

मोहब्बत सज़ा है
मैं मान लेता
मगर साँस कायम है
अबतक उसी से
हज़ार बातें कही थी तुमने
हज़ार खावोहिश दबी है दिल में
वही मोहब्बत, वही आरजू है
जो खवाब आंखों में दिखाई थी तुमने ॥

प्रकाश "अर्श"
३०/०८/२००८

Saturday, August 23, 2008

तुम जो कर रहे थे अभी ......



तुम जो कर रहे थे अभी ,क्या वो काम बाकी है ।
हो गया बदनाम बहोत ,बस थोडी नाम बाकी है ॥

फुर्सत मिले तो फ़िर से इस तरफ़ चले आना ,
गर्दिश में हूँ,तलब है,आखिरी अंजाम बाकी है ॥

जो भी था पास मेरे वो बाँट दी ज़माने में ,
तुम भी आवो,ले जावो ,तुम्हारा इनाम बाकी है ॥

वो कौन था जिसने खोदी थी कब्र की मिट्टियाँ ,
उससे कहो ठहरे अभी ,बस थोडी काम बाकी है ॥

खुदा भी सोंच के गुम है ,ये किसका ज़नाजा है ,
जहाँ हसीनाएं शामिल है ,क्या वहां इंतकाम बाकी है ॥

मैं पी के लड़खाधाया भी नही और तुमने "अर्श"
कहदिया रिंद कोई और है ,ये उसका जाम बाकी है ॥

प्रकाश "अर्श"
२३/०८/२००८

Monday, August 18, 2008

कैसे कहूँ के फकत वाक्य हो तुम.....

कैसे कहूँ के फकत वाक़या हो तुम ।
मुझसे कोई पूछे भला क्या-क्या हो तुम॥

जो हो सका ना , मिल सका मुझको ,
वही सज़दा मेरी वही खुदा हो तुम ॥

नही है रोशनी मेरी मुक्कदर में ना सही ,
मैं जानता हूँ एक जलती हुई चरागा हो तुम ॥

शुर्ख होंठो पे तब्बसुम की बिजलियाँ ,
ये भरम है,चाँद तारों का हिस्सा हो तुम ॥

अजीब शख्स है ,फकत हँसता रहता है ,
गर खफा हो तो कह दो के खफा हो तुम ॥

"अर्श" पि के होश में आया न उम्र भर ,
वही मय हो वही मयकदा हो तुम ॥


प्रकाश "अर्श"
१७/०८/२००८