बहोत बेसब्र है ये दिल बड़ी बेकरारी है ।
बेदाद-ऐ -इश्क था मुझपे अब किसकी बारी है ॥
वही जुस्तजू लिल्लाह वही है आरजू कसम से
लगी है गुफ्तगू होने के वो आबरू हमारी है ॥
गम-ऐ- हयात की नुमाइश अब क्या करे कोई
सब्र है तुम हमारे हो और दुनिया तुम्हारी है ॥
खुला जब बंद-ऐ-नकाब-ऐ-हुस्न वो साकी
तल्खी-ऐ-काम-ओ-दहन उसकी है या तुम्हारी है ॥
मैं कहाँ जाऊँ अफ्सुं-ऐ-निगाह के सिवा
वही हाइल है हमारी "अर्श"वही चारागरी है ॥
बेदाद-ऐ-इश्क =मोहब्बत का जुलम ,
गम-ऐ-हयात =दुःख भरी ज़िन्दगी ,
बंद-ऐ-नकाब-ऐ-हुस्न =प्रेमिका के नकाब के बंधन
तल्खी-ऐ-कम-ओ-दहन=ओठ और तालू पर महसूस
होने वाला कसेलापन । अफ्सुं-ऐ-निगाह = जादू भरी निगाह
हाइल = बाधा पहुँचने वाला
मुआफी चाहता हूँ ज्यादा उर्दू और फारसी का शब्द इस्तेमाल करने के लिए ॥
प्रकाश "अर्श"
२२/१०/२००८
Wednesday, October 22, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment
आपका प्रोत्साहन प्रेरणाश्रोत की तरह है ... धन्यवाद ...