दिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
उनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥
वो शोखी चहरे पे ऐसी के ज़माने फ़िर कहाँ ।
उनके गिले होंठ ,वो हिना-ओ-रुखसार था ॥
खुली थी जुल्फ ,था बदन जैसे संगेमरमर ।
तिरछी नज़र का तीर यहाँ तो आर-पार था ॥
वो परी थी, या कोई हूर थी ज़मीं पे उतरी ।
हुस्नो-शबाब का उनपे तो यो भर-मार था ॥
आफत हुई है "अर्श" अब तो जीना मुहाल है ।
दिल पे अब अपने कहाँ इख्तियार था ॥
प्रकाश "अर्श"
१४/१०/२००८
हिना-ओ-रुखसार = गलों पे छाई लाली ।
Wednesday, October 15, 2008
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