ये कहाँ आ गया हूँ मैं , दीवानों के शहर में ।
हर वक्त खटकता हूँ यहाँ सबके नज़र में ॥
लिखता हूँ गर कोई ग़ज़ल होती न मुक्कमल ,
होती है ग़लत रदीफ़,काफिये में बहर में ॥
सब है अपनी धुन में, मतलब ही नही किसी को ,
कैसा है यहाँ चलो-चलन अपने -अपने घर में ॥
किया जो इज़हारे मोहब्बत, मैंने किसी से ,
टाला है वहीँ ,उसी ने ,बस अगर-मगर में ॥
होती हो तिजारत अगर मोहब्बत पे मोहब्बत ,
मैं भी खड़ा हासिये पे यहाँ सिम-ओ-जर में ॥
नही करनी मोहब्बत मुझे, न होगी ये मुझसे ,
चल लौट चले "अर्श"वही अपने अब्तर में ॥
प्रकाश "अर्श"
२१/११/२००८
अब्तर =मूल्यहीन,
Friday, November 21, 2008
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