Sunday, October 26, 2008

एक बस तू ही नही मुझसे खफा और भी हैं .......

एक बस तू ही नहीं मुझसे खफा और भी है ।
इक मोहब्बत के सिवा वादे-वफ़ा और भी है ॥

चोट खाया, तो समझ आई, के मुज़रिम हूँ मैं
दिल ने फ़िर मुझसे कहा देखलो जा और भी है ॥

तुझे अज़ीज़ है सिम-ओ-जर तो मुबारक हो तुझे
तुमसे गिला क्या करें जहाँ मेरे सीवा और भी है ॥

मैं हूँ महरूम ,मरहूम ,मरहम न लगा "अर्श"
सोंच लो जुल्म-ऐ-मोहब्बत की सजा और भी है ॥

"अर्श"
२६/१०/२००८
सिम-ओ-जर=धन दौलत ,जा = जगह

Wednesday, October 22, 2008

बहोत बेसब्र है ये दिल बड़ी बेकरारी है ......

बहोत बेसब्र है ये दिल बड़ी बेकरारी है ।
बेदाद-ऐ -इश्क था मुझपे अब किसकी बारी है ॥

वही जुस्तजू लिल्लाह वही है आरजू कसम से
लगी है गुफ्तगू होने के वो आबरू हमारी है ॥

गम-ऐ- हयात की नुमाइश अब क्या करे कोई
सब्र है तुम हमारे हो और दुनिया तुम्हारी है ॥

खुला जब बंद-ऐ-नकाब-ऐ-हुस्न वो साकी
तल्खी-ऐ-काम-ओ-दहन उसकी है या तुम्हारी है ॥

मैं कहाँ जाऊँ अफ्सुं-ऐ-निगाह के सिवा
वही हाइल है हमारी "अर्श"वही चारागरी है ॥


बेदाद-ऐ-इश्क =मोहब्बत का जुलम ,
गम-ऐ-हयात =दुःख भरी ज़िन्दगी ,
बंद-ऐ-नकाब-ऐ-हुस्न =प्रेमिका के नकाब के बंधन
तल्खी-ऐ-कम-ओ-दहन=ओठ और तालू पर महसूस
होने वाला कसेलापन । अफ्सुं-ऐ-निगाह = जादू भरी निगाह
हाइल = बाधा पहुँचने वाला
मुआफी चाहता हूँ ज्यादा उर्दू और फारसी का शब्द इस्तेमाल करने के लिए ॥


प्रकाश "अर्श"
२२/१०/२००८

Wednesday, October 15, 2008

दिल जार - जार था ..................

दिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
उनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥

वो शोखी चहरे पे ऐसी के ज़माने फ़िर कहाँ ।
उनके गिले होंठ ,वो हिना-ओ-रुखसार था ॥

खुली थी जुल्फ ,था बदन जैसे संगेमरमर ।
तिरछी नज़र का तीर यहाँ तो आर-पार था ॥

वो परी थी, या कोई हूर थी ज़मीं पे उतरी ।
हुस्नो-शबाब का उनपे तो यो भर-मार था ॥

आफत हुई है "अर्श" अब तो जीना मुहाल है ।
दिल पे अब अपने कहाँ इख्तियार था ॥


प्रकाश "अर्श"
१४/१०/२००८

हिना-ओ-रुखसार = गलों पे छाई लाली ।

Tuesday, October 14, 2008

बड़ी अदब से मुझको आजमाने लगे .....

वो दुश्मनी इस कदर निभाने लगे ।
दूर जाते -जाते पास आने लगे ॥

दिलो-दिमाग से जिसको निकालना चाहा
हुजुर बनके वो जहन में छाने लगे ॥

मेरी मोहब्बत भी मुक्कमल हो गई होती
बड़ी अदब से मुझको आजमाने लगे ॥

वो मय था शराब था जो कल तलक
मैखाने में वही आने - जाने लगे ॥

जो ग़लत था तौबा किया था लोगों ने
आज वही गीत वो गुनगुनाने लगे ॥

बड़ी अदब से जब कहा खुदाहाफिज़ "अर्श"
जो कहने में शायद हमें ज़माने लगे ॥

प्रकाश "अर्श"
१४/१०/२००८

Wednesday, October 1, 2008

वक्त ने उनको मोतारमा बना दिया .....

वक्त ने उनको मोहतरमा बना दिया ।
खुदाया तुमने भी किसको क्या बना दिया ॥

घर से निकला था जो , तकमील के लिए ,
रास्तों ने पैरो में आबला बना दिया ॥

मुझे गुरुर था, बज्म-ऐ-नाज़ पे मगर ,
उस शख्स ने,दार-ओ-रसन जा बना दिया ॥

हाँथ मलता रहा वो उम्र भर ,आखरस
खून को "अर्श" वही रँगे-हिना बना दिया ॥

प्रकाश "अर्श"
०१/१०/२००८
तकमील = मंजिल पे पहुँचना, आबला =छाला ,
रँगे-हिना =मेहंदी का रंग , बज्म-ऐ-नाज़ = माशूक की महफ़िल
दार-ओ-रसन = सूली और फंसी का फंदा , जा = जगह ॥